E ९१, मुखर्जी नगर
दिल्ली ११०००९
दिनांक: ०१/११/१७
प्रिय शशि,
जब से हमने दिल्ली विश्ववद्यालय में नामांकन कराया है, तब से हमारे मन में कई विचार व कई आत्म प्रश्न अना लगे हैं। जो यकीनन सेल्फ डाउट्स हो सकते हैं लेकिन डीमोटिवेट होने कारण नहीं। छोटे- छोटे शहरों से खाली बोर दोपहरों से सिर्फ हम ही नहीं बल्कि और भी साथी हैं जो झोला उठाकर चले हैं। और कई साथी है जो यहां (दिल्ली) के ही निवासी हैं, जो यहां के आबो- हवा से परिचित हैं। हमारे लिए यह चुनौतीपूर्ण फैसला था कि क्या हमें दिल्ली जाना चाहिए? वहां के लोग कैसे होंगे? वहां पर जाने के बाद पढ़ाई के माहौल कैसे होंगे ? क्या हम अपने आप को वहां के अनुकूल देख पाते हैं य नहीं? फिर न जाने कहां से हम तक " दिल है छोटा सा छोटी सी आशा, चांद- तारों की छूने की आशा " पहुंचती है। सारे सवालों को पीछे छोड़कर अपने राह पर निकलकर अपने मंजिल पूरा करने की प्रेरणा देती है। सचमुच! बड़ा ही अद्भूत एहसाह/अनुभव है यहां के लोगों से मिलना, उनसे बातें करना। सबसे रोचक बात तो यह है कि मेरे सभी नवीन साथी किसी ना किसी फिल्ड में अपने को बेहतर प्रदर्शित कर पाते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखना है हमें।
दिल्ली ११०००९
दिनांक: ०१/११/१७
प्रिय शशि,
जब से हमने दिल्ली विश्ववद्यालय में नामांकन कराया है, तब से हमारे मन में कई विचार व कई आत्म प्रश्न अना लगे हैं। जो यकीनन सेल्फ डाउट्स हो सकते हैं लेकिन डीमोटिवेट होने कारण नहीं। छोटे- छोटे शहरों से खाली बोर दोपहरों से सिर्फ हम ही नहीं बल्कि और भी साथी हैं जो झोला उठाकर चले हैं। और कई साथी है जो यहां (दिल्ली) के ही निवासी हैं, जो यहां के आबो- हवा से परिचित हैं। हमारे लिए यह चुनौतीपूर्ण फैसला था कि क्या हमें दिल्ली जाना चाहिए? वहां के लोग कैसे होंगे? वहां पर जाने के बाद पढ़ाई के माहौल कैसे होंगे ? क्या हम अपने आप को वहां के अनुकूल देख पाते हैं य नहीं? फिर न जाने कहां से हम तक " दिल है छोटा सा छोटी सी आशा, चांद- तारों की छूने की आशा " पहुंचती है। सारे सवालों को पीछे छोड़कर अपने राह पर निकलकर अपने मंजिल पूरा करने की प्रेरणा देती है। सचमुच! बड़ा ही अद्भूत एहसाह/अनुभव है यहां के लोगों से मिलना, उनसे बातें करना। सबसे रोचक बात तो यह है कि मेरे सभी नवीन साथी किसी ना किसी फिल्ड में अपने को बेहतर प्रदर्शित कर पाते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखना है हमें।
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